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देवता: अग्निः ऋषि: सौभरि: काण्व: छन्द: बृहती स्वर: मध्यमः काण्ड:

य꣢स्मा꣣द्रे꣡ज꣢न्त कृ꣣ष्ट꣡य꣢श्च꣣र्कृ꣡त्या꣢नि कृण्व꣣तः꣢ । स꣣हस्रसां꣢ मे꣣ध꣡सा꣢ताविव꣣ त्म꣢ना꣣ग्निं꣢ धी꣣भि꣡र्न꣢मस्यत ॥१५१६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यस्माद्रेजन्त कृष्टयश्चर्कृत्यानि कृण्वतः । सहस्रसां मेधसाताविव त्मनाग्निं धीभिर्नमस्यत ॥१५१६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य꣡स्मा꣢꣯त् । रे꣡ज꣢꣯न्त । कृ꣣ष्ट꣡यः꣢ । च꣣र्कृ꣡त्या꣢नि । कृ꣣ण्वतः꣢ । स꣣हस्रसा꣢म् । स꣣हस्र । सा꣢म् । मे꣣ध꣡सा꣢तौ । मे꣣ध꣢ । सा꣣तौ । इव । त्म꣡ना꣢꣯ । अ꣣ग्नि꣢म् । धी꣣भिः꣢ । न꣣मस्यत ॥१५१६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1516 | (कौथोम) 7 » 1 » 11 » 2 | (रानायाणीय) 14 » 3 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर परमात्मा और राजा का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(चर्कृत्यानि) अतिशय करने योग्य कर्मों को (कृण्वतः) करते हुए (यस्मात्) जिस जगदीश्वर वा राजा से (कृष्टयः) दुष्ट मनुष्य (रेजन्त) भय के मारे काँपते हैं, उस (सहस्रसाम्) सहस्र गुणों वा सहस्र पदार्थों के दाता (अग्निम्) अग्रनायक, जगदीश्वर वा राजा को, आप लोग (त्मना) स्वयं (धीभिः) बुद्धियों और कर्मों से (सपर्यत) पूजित वा सत्कृत करो, (मेधसातौ इव) जैसे यज्ञ में (अग्निम्) यज्ञाग्नि को याज्ञिक जन (धीभिः) आहुति-प्रदान आदि कर्मों से सत्कृत करते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे न्यायकारी परमेश्वर से वैसे ही न्यायकारी राजा से दण्ड के भय से पापी लोग काँपें। जैसे सज्जनों को परमेश्वर सहस्र गुण व बल प्रदान करता है, वैसे ही राजा राष्ट्रभक्तों को सहस्र लाभ प्रदान करे। प्रजाजन भी परमेश्वर के भक्त जैसे परमेश्वर की पूजा करते हैं वा याज्ञिक लोग जैसे यज्ञाग्नि का हवियों से सत्कार करते हैं, वैसे ही अपने राजा का सत्कार करें ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि परमात्मनृपत्योर्विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(चर्कृत्यानि) भृशं कर्तुं योग्यानि कर्माणि [करोतेर्यङ्लुगन्तात् क्तः, ततोऽर्हार्थे यत्।] (कृण्वतः) कुर्वतः (यस्मात्) जगदीश्वरात् नृपतेर्वा (कृष्टयः) दुष्टा जनाः (रेजन्त) अरेजन्त, भयात् कम्पन्ते। [भ्यसते रेजते इति भयवेपनयोः। निरु० ३।२१। लडर्थे लुङ्, अडागमाभावश्छान्दसः।] (सहस्रसाम्) सहस्रगुणानां सहस्रवस्तूनां वा दातारम् (अग्निम्) अग्रनायकं जगदीश्वरं नृपतिं वा, यूयम् (त्मना) आत्मना (धीभिः) बुद्धिभिः कर्मभिश्च (सपर्यत) परिचरत, (मेधसातौ इव) यथा यज्ञे (अग्निम्) यज्ञाग्निम् याज्ञिकाः जनाः (धीभिः) हविष्प्रदानादिभिः कर्मभिः सपर्यन्ति तद्वत् ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा न्यायकारिणः परमेश्वरात् तथैव न्यायकारिणो नृपतेर्दण्डभयाद् दुष्कर्माणः कम्पन्ताम्। यथा सज्जनेभ्यः परमेश्वरः सहस्रं गुणान् बलानि वा ददाति तथा राष्ट्रभक्तेभ्यो राजा सहस्रशो लाभान् प्रयच्छेत्। प्रजाजना अपि परमेशभक्ताः परमेशमिव, याज्ञिकाश्च यज्ञाग्निमिव स्वकीयं राजानं सत्कुर्युः ॥२॥